भारतीय शिक्षा प्रणाली में
कुछ सुधारों की प्रमुख आवश्यकता
सबसे पहले हम भाषा विषयों (Language Subjects) की बात करते हैं। हमारी शिक्षा प्रणाली के तहत भाषा विषयों में हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत आदि विषय पढ़ाये जाते हैं।
इन विषयों में हमें भाषा
से संबन्धित प्रमुख कवियों की कविताएँ, लेखकों की
कहानियाँ तथा भाषा व्याकरण पढ़ाई जाती हैं।
इन सभी विषयों में हमें
सैद्धान्तिक ज्ञान ही दिया जाता है जबकि हमें जरूरत होती है व्यावहारिक ज्ञान की।
हमारे घर-परिवार, समाज, राज्य, और पूरे देश
(दक्षिण भारत के कुछ राज्यों को छोडकर) में हिन्दी भाषा व्यावहारिक तौर पर व्यापक
रूप से उपयोग में लायी जाती हैं। इसलिए हमें हिन्दी आसान लगती हैं।
अब हम अंतर्राष्ट्रीय भाषा
अंग्रेजी की बात करते हैं। हमारे देश में हरेक स्कूल में अंग्रेजी विषय पढ़ाया जाता
हैं। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बावजूद भी हमें अंग्रेजी बोलने में समस्याएँ आती हैं।
इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि हमें विद्यालय स्तर पर अंग्रेजी सिर्फ और सिर्फ उस विद्यालय में उत्तीर्ण होने के लिए सैद्धांतिक तौर पर ही पढ़ाई जाती है। इसलिए हम आगे जाकर
English
Speaking में अटक जाते हैं।
इसका एक समाधान यह है कि उस अंग्रेजी अध्यापक और छात्रों के बीच अंग्रेजी में conversation हो। इसका दूसरा समाधान यह भी हो सकता है कि अंग्रेजी के पाठ्यक्रम को दो भागों
में तोड़ा जाए-
1. Theory 2. Practical
अब आप कहोगे कि भाषा विषयों में
कैसा practical होगा?
भाषा विषय के practical में हम भाषा में वार्तालाप (Conversation in Language), उच्चारण (Pronunciation) आदि Topics रख सकते हैं। साथ ही Communication skils को भी इसमें शामिल किया जाए।
अब हम बात करते हैं संस्कृत
की। संस्कृत भाषा एक वैदिक भाषा या भारत की एक पारंपरिक भाषा है। लेकिन आधुनिक युग
में इसका व्यापक उपयोग नहीं हैं। इसलिए हमें इस भाषा विषय को अनिवार्य विषय (Compulsary Subject) से वैकल्पिक विषय (Optional Subject) घोषित कर देना चाहिए, ताकि यह विषय सभी छात्रों के लिए समस्या और बोझ नहीं बने। साथ ही यह विषय
रूचिकर विद्यार्थियों के लिए एक विकल्प भी बना रहे और इस भाषा का अस्तित्व भी बना रहे।
विद्यालय में जितने भी कालांश
लगाए जाते हैं, उसमें से एक कालांश योग (Yoga) के लिए तथा एक कालांश खेल व क्रीडा (Games & Sports) के लिए आवंटित किया जाए। औए ये दोनों कालांश हर रोज नियमित रूप से लगाया
जाए। इन कालांश को कला शिक्षा (Art Education) और स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा (Health & Physical Education) की तरह अनुपयोगी नहीं माना जाए।
अब हम बात करते हैं शिक्षकों
के मूल्यांकन की। जिस तरह से शिक्षक, छात्रों का मूल्यांकन
करते हैं, तो छात्रों पर पढ़ाई के लिए दबाव बना रहता है। ठीक उसी
तरह, यदि छात्रों के द्वारा शिक्षकों का मूल्यांकन भी करवाते
हैं, तो शिक्षकों पर भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के
लिए छात्रों का नियमित रूप से दबाव रहेगा। इससे शिक्षक अपने विषय से संबन्धित जानकारी
नियमित रूप से अपडेट करते रहेंगे और वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर पाएंगे।
अब बात आती है पाठ्यसामग्री
(Syllabus) की। Syllabus में अब कुछ बदलाव करना अनिवार्य हो गया
है। Theory और Practical को लगभग 50:50
अनुपात में बांटा जाये। साथ ही अनचाहे Topics को Syllabus से हटाया जाये।
विशेष तौर पर इतिहास (History) में किसी घटना के तथ्य और तारीख को रटाने की बजाय उस घटना की वजह और प्रभाव
को कहानी के माध्यम से समझाया जाये।
इसके अलावा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा
के लिए शिक्षकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम को सुधारा जाये।
कहा जाता है की-
The quality of education in
India is directly proportional to the quality of teaching.